मौजूदा सरकार किसकी है?|1feb, 2021|

आज पूरा देश आर्थिक मंदी की चपेट में है।मुनाफे की औसत दर तेजी से गिरती जा रही है। इसलिए मौजूदा सरकार उद्योगपतियों के निवेश और मुनाफा को बढ़ाने के लिए बैंकों की ब्याज दर को लगातार घटाती जा रही है।अब अगर पीछे मुड़कर देखा जाए तो पीएमसी और यस बैंक का पूरा मामला इस बात की पुष्टि करता है कि किस प्रकार बैंकों को लूटने की खुली छूट पूंजीपति वर्ग को दिया जा रहा है। आर्थिक मंदी की मार संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों पर पड़ी है। जिसके परिणाम स्वरूप आज बेरोजगारी की दर पिछले 45 वर्षों में सबसे ज्यादा है। आम जनता की क्रय शक्ति लगातार घटती जा रही है वहीं दूसरी तरफ फोर्ब्स इंडिया के आंकड़ों के अनुसार मुकेश अंबानी की संपत्ति मैं 118% और अडानी की संपत्ति में 121% तक बढ़ोतरी हुई है। इससे साफ जाहिर होता है कि सरकार की नीतियों का सीधा फायदा चंद पूंजीपति घरानों को ही जा रहा है। 

!! तीसरा आदमी !!

एक आदमी कहता है
“हिन्दू”
दूसरा आदमी कहता है
“मुसलमान”
और एक तीसरा भी है,
जो कहता है-
“हिन्दू और मुसलमान”
दोनों शब्दों में भिन्नता है,
सक्रीय रासायनिक तत्वों के माफ़िक़
और ये हिस्सा लेते हैं,
प्रत्येक प्रगतिशील सामाजिक-रासायनिक
अभिक्रिया में,
बिलकुल वैसे ही जैसे-
ऑक्सीजन का एक परमाणु,
हाइड्रोजन के दो परमाणुओं के साथ-
अभिक्रिया करता है
और बनाता है पानी
तीसरा आदमी,
हमेशा इन तत्वों(हिन्दू और मुस्लमान) की अभिक्रिया कराता है
बिना किसी शर्त , समय , परिवेश-
और उत्प्रेरक के
और बनाता है पानी जैसे-
ही उपयोगी उत्पाद
पहले और दूसरे आदमी के पास-
भी तत्व है,
मगर अलग-अलग
और इनके तत्व भी हिस्सा लेते हैं
सामाजिक रासायनिक अभिक्रिया में
लेकिन एक विशेष शर्त,समय,परिवेश-
और उत्प्रेरक के साथ
अब,
खुद से सवाल करो
आप कौन हो??
क्या आप पहले और दूसरे आदमी हो ,
जो धार्मिक-कट्टरता , अंधता और-
अज्ञानता जैसे शब्दों से-
उत्प्रेरक का काम लेते हैं
या फिर तीसरा आदमी
जो एकता , समानता और भाईचारे-
जैसे शब्दों को लेकर-
प्रगतिशील सामाजिक आंदोलनों में हिस्सा लेता है

!! रोटी !!

(अ)

मैं लिखता हूँ

“रोटी”

और गरीब कहते हैं

“भूख”

जिसे आप देख सकते हैं

वहाँ , जहां रोटी नही होती

(ब)

भूख को धन्नासेठों से कोई दुश्मनी नही-

रोज गुजरती है उनके घर के सामने से

लेकिन मजाल है !!

जो नजर उठा कर भी देख ले

(स)

अब मैं लिखता हूँ

“भूख ”

और गरीब चिल्लाते हैं –

“निर्दयी और अन्यायी ”

भूख ढूंढती है ऐसे घरों को,

जहां कई दिनों से नही जलता चूल्हा-

और नही बन पाती रोटी

!! सपना !!

वो लिखती है

“रात”

और मैं कहता हूँ

“सपना ”

सपना एक जरिया है

उससे मिलने का

और ढेर सारी बाते करने का

जैसे कि उसकी पसंद और नापसंद

इस तरह –

सपना मेरा सबसे अच्छा शुभचिंतक है

क्यों कि सपने में हम –

अपने दुश्मन को काले पानी की

सजा दे सकते हैं

और बन सकते हैं –

किसी बड़े राज्य का राजा

!! अपराधी कवि !!

लोग कहते हैं

मैं कवि हूँ

लेकिन मैं सोचता हूँ

तब, जबकि

मेरी कविताएं –

ठहाके नही लगवा पाती

मेरी कविताएं –

किसी को रुला भी नही पाती

मेरी कविताएं-

कसीदे नही पढ़ती किसी की शान में

फिर आखिर,

मैं कौन हूं……

!! औरत !!

मै लिखता हूँ
एक ‘औरत ‘
और तुम सोचते हो –
एक ‘ रात ‘
उसके साथ बिताने के लिए
मै डर महसूस करता हूँ
वैसे ही –
जैसे रेत पर लिखी ,
एक ‘औरत ‘करती है
वह दूर से आती लहरों को-
देखती रहती है
जो कभी बिल्कुल पास आकर –
वापस लौट जाती हैं
वह उस वक्त भी खुश नहीं होती ,
क्यों कि-
उसे पता है ,लहरें फिर उठेंगी-
उसका अस्तित्व मिटाने के लिए
अब मै सोचता हूँ-
क्या लिखू फिर से
एक ‘औरत ‘
या लिखू –
एक ‘आदमी ‘
जो रात बिताने के बारे में न सोचता हो
और उन लहरों को भी लिखू –
जो किनारे आकर खुद लिखे –
एक ‘औरत ‘

!! सियासत !!

जब आप कहोगे

मै देख सकता हूँ

आपको अँधा बनाया जायेगा

जब आप कहोगे

मै बोल सकता हूँ

आपको गूंगा बनाया जायेगा

जब आप कहोगे

मै सुन सकता हूँ

आपको बहरा बनाया जायेगा

आखिर !

आपको अँधा, गूंगा और बहरा बनाने-

वाला कौन है ?

!! मै लिखता हूँ !!

(1)

!! भगवान !!

मै लिखता हूँ
‘भगवान’
जो आत्मनिर्भर है
और निडर भी
लेकिन !!
तुम सोचते हो –
एक ‘मंदिर ‘,
और उसमे रखी-
एक पथ्थर की मूरत

मै खुद को असहाय महशुस करता हूँ
और अकेला भी
तब ,
जबकि तुम घण्टियाँ बजाते हो –
कहीं दूर ,
किसी नदी के किनारे
ये जानते हुए कि-
पानी चढ़ाव पर है
लेकिन !
तुम वहीँ बैठे रहते हो ,
सबके साथ ,
आँखे बंद किये

अब मै सोचता हूँ
क्या लिखू ??
उस ‘भगवान’ को
जो खुद आकर साबित करे-

अपनी अपंगता

या लिखू –
एक ‘नदी’
जो किसी को डुबाती न हो ..

!! नोटबंदी !!

वे भी क्या दिन थे …
जब नोटों ने बदला था रूप
बैंक बना था मंदिर ,
मैनेजर भगवान स्वरूप
होत सबेरे एटीएम के आगे-
सबके चेहरे खिलते थे
तुग़लकी फ़रमान के आगे –
सब लोग बेबस मिलते थे
वे भी क्या दिन थे …
जब नोटों ने बदला था रूप
कतारों में कटती थी रातें-
और कटता था दिन
नागिन नाच करते थे हम –
सरकार बनी थी बीन
वे भी क्या दिन थे….
जब नोटों ने बदला था रूप
खाने के भी लाले पड़ गए
छाया था अँधेरा-घूप
रोज नए कानून बने-
जारी हुए फ़रमान
वादों का अम्बार लगा-
जगाये गए अरमान
वे भी क्या दिन थे …
जब नोटों ने बदला था रूप
अगर क़त्ल कोई जुर्म है तो –
कोई उनसे जा बतलाये
धक्का -मुक्की ,गिरते -पड़ते
कितनों ने थे जान गवाएं
वे भी क्या दिन थे…
जब नोटों ने बदला था रूप
किसी को विधवा किसी को विधुर –
किसी को बेसहारा छोड़ दिया
पूंजीपति सब चैन से सोए –
गरीबी ने दम तोड़ दिया
वे भी क्या दिन थे…
जब नोटों ने बदला था रूप